हमारे देश का दो नाम क्यो है? देश का नाम इंडिया बदलकर भारत अथवा हिंदुस्तान करना क्यो जरूरी है? कभी आप ने सोचा हैं ?
हमारे देश का दो नाम क्यो है? |
_"हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है कि इंडिया नाम रखना अंग्रेजो की गुलामी का प्रतीक है जबकि भारत अथवा हिंदुस्तान नाम रखना जरूरी है क्योंकि उससे राष्ट्रभक्ति जागृत होगी इस पर सुनवाई 2 जून को है।"_
नाम बदलना क्यों आवश्यक है?
कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और संपूर्ण पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राड को पुनः सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राड को वोल्गोग्राद आदि किया गया। पड़ोस में सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका तथा बर्मा ने म्यानमार कर लिया। स्वयं ग्रेट ब्रिटेन को अपनी आधिकारिक संज्ञा बदलकर यूनाइटेड किंगडम करना पड़ा। इन नाम-परिवर्तनों के पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं रही हैं।
अतः यह दुखद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ अनेक प्रांतों और शहरों के नाम तो बदले, किंतु देश का नाम यथावत विकृत बना हुआ है। समय आ गया है कि जिन लोगों ने ‘त्रिवेन्द्रम’ को तिरुअनंतपुरम्, ‘मद्रास’ को तमिलनाडु, ‘बोंबे’ को मुंबई, ‘कैलकटा’ को कोलकाता या ‘बैंगलोर’ को बंगलूरू, ‘उड़ीसा’ को ओडिसा तथा ‘वेस्ट बंगाल’ को पश्चिमबंग आदि पुनर्नामांकित करना जरूरी समझा – उन सब को मिल-जुल कर अब ‘इंडिया’ शब्द को विस्थापित कर भारत अथवा हिंदुस्तान कर देना चाहिए। क्योंकि यह वह शब्द है जो हमें पददलित करने और दास बनाने वाली संस्था ने हम पर थोपा था।
यह केवल भावना की बात नहीं। किसी देश, प्रदेश के नामकरण का गंभीर निहितार्थ होता है। दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण शिक्षाप्रद है। वहाँ विगत दस वर्ष में 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं! इन में शहर ही नहीं, नदियों, पहाड़ों, बाँधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। आगे भी कई नाम बदलने का प्रस्ताव है। यह इस सिद्धांत के आधार पर किया गया कि जो नाम जनमानस को चोट पहुँचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए। वहाँ यह विषय इतना गंभीर है कि ‘दक्षिण अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल’ नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है।
अतएव, हमारे देश का नाम सुधारना भी एक गंभीर मह्त्व का प्रश्न है। नामकरण बौद्धिक-सांस्कृतिक प्रभुत्व के प्रतीक और उपकरण होते हैं। पिछले आठ सौ वर्षों से यहाँ विदेशी आक्रांताओं ने हमारे सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक केंद्रों को नष्ट कर उसे नया रूप और नाम देने का अनवरत प्रयास किया। अंग्रेज शासकों ने भी यहाँ अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखें। शिक्षा में वही काम लॉर्ड मैकॉले ने खुली घोषणा करके किया, कि वे भारतवासियों की मानसिकता ही बदल कर उन्हें स्वैच्छिक ब्रिटिश नौकर बनाना चाहते हैं, जो केवल शरीर से भारतीय रहेंगे।
वस्तुतः नाम, शब्द और विचार बदलने का महत्व केवल अंग्रेज ही नहीं समझते थे। जब 1940 में यहाँ मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की माँग की और अंततः उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। वे चाहते तो नए देश का नाम ‘वेस्ट इंडिया’ या ‘मगरिबी हिन्दुस्तान’ रख सकते थे – जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था, यानी पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी तथा उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया। पर मुस्लिम लीग ने एकदम अलग, मजहबी नाम रखा। इस के पीछे भी एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहाँ तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुस्लिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिन्दुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?
कयोंकि नाम और शब्द कोई निर्जीव उपकरण नहीं होते। वह किसी भाषा व संस्कृति की थाती होते हैं। जैसा निर्मल वर्मा ने लिखा है, कई शब्द अपने आप में संग्रहालय होते हैं जिन में किसी समाज की सहस्त्रों वर्ष पुरानी पंरपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी चेतना, परंपरा भी छोड़ता है। संभवतः इसीलिए अभी हमारे जो राष्ट्रवादी नेता, लेखक या पत्रकार पूर्णतः अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित हैं, और जिन्होंने संस्कृत या भारतीय शास्त्रों का मूल रूप में अध्ययन नहीं किया है, वे प्रायः हिन्दू जनता की चेतना से तारतम्य नहीं रख पाते। कई बिंदुओं पर उनके विचार सेक्यूलरवादियों या हिन्दू-विरोधी ‘आधुनिकों’ से मिलने लगते हैं। क्योंकि उन बिन्दुओं पर उनकी शिक्षा विदेशी भाषा तथा विदेशी अवधारणाओं के आधार पर हुई है। इसीलिए अपनी पूरी सदभावना के बावजूद वे चिंतन में अ-भारतीय, अ-हिन्दू हो जाते हैं।
वस्तुतः, सन् 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उन में से एक यह भी थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया के लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस “एक शब्द ने भारी तबाही की”। यह हमारे देश मे दो नाम क्यो है? जो काम सरकार को करना चाहिए था वे आज एक नागरिक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर मांग की है। सरकार को भी जनता की मांग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट में बताना चाहिए कि देश का नाम शीघ्र बदल जाये इंडिया शब्द हटाकर भारत अथवा हिंदुस्तान कर देना चाहिए।
बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। यदि देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहाँ किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिन्दू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिन्दू से बड़ा बना दिया। यदि यह न हुआ होता तो आज सेक्यूलरिज्म, डाइवर्सिटी, और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल व फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता।
यदि देश का नाम भारत रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अभी भी ‘हिन्दवी’ मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिन्दू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं। यह पूरी दुनिया में हमारी पहचान है, जिस से मुसलमान भी जुड़े थे। क्योंकि वे सब हिन्दुओं से धर्मांतरित हुए लोग ही हैं (यह महात्मा गाँधी ही नही, फारुख अब्दुल्ला भी कहते हैं)।
इस प्रकार, विदेशियों द्वारा दिए गए नामों को त्यागना आवश्यक है। इस में अपनी पहचान के महत्व और गौरव की भावना है। ‘इंडिया’ को बदलकर भारत करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति नहीं हो सकती। भारत शब्द इस देश की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में ‘इंडिया’ का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। जब वह व्यापार करने इस देश में आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिन्दुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?
वस्तुतः पिछले वर्ष गोवा के कांग्रेस सांसद श्री शांताराम नाईक ने इस विषय में संविधान संशोधन हेतु राज्य सभा में एक निजी विधेयक प्रस्तुत किया भी था। इस में उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना तथा अनुच्छेद एक में इंडिया शब्द को हटाकर भारत कर लिया जाए। क्योंकि भारत अधिक व्यापक और अर्थवान शब्द है, जबकि इंडिया मात्र एक भौगोलिक उक्ति। श्री नाईक को हार्दिक धन्यवाद कि वह एक बहुत बड़े दोष को पहचानकर उसे दूर करने के लिए आगे बढ़े। पर जागरूक और देशभक्त भारतवासियों द्वारा इसके पक्ष में किसी अभियान का अभाव रहा है।
दश का नाम भारत करने के प्रयास में ऐसे बौद्धिक मौन-मुखर विरोध करेंगे। क्योंकि उन्हें ‘भारतीयता’ संबंधी भाव से वितृष्णा है।समस्या यह है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए एक स्थानीय जनता की भावना सशक्त थी, उस प्रकार भारत के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले कम हैं। वरन ठीक इसीलिए कि भारत की भावना स्थानीयता की नहीं, बल्कि राष्ट्रीयता की भावना है। अतः देशभक्ति से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, अथवा किसी न किसी प्रकार के ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ या ‘ग्लोबल’ भाव से जुड़ाव रखने वाले राजनीतिक और बौद्धिक इसके प्रति उदासीन हैं।
इडिया शब्द को बदल कर भारत करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाले हर तरह के गुट, गिरोह और विचारधाराएं इसके प्रति दुराव रखते हैं। वे विरोध करने के लिए हर तरह की संकीर्ण भावना उभारेंगे। उत्तर भारत या कथित हिन्दी क्षेत्र की मंद सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना उनके लिए सुविधा करती है। इस क्षेत्र में वैचारिक दासता, आपसी कलह, अविश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों, आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है, जो विदेशियों से हार जाने के बाद “आत्मसमर्पण को सामंजस्य” बताती रही है। इसी बात की डॉ. राममनोहर लोहिया ने सर्वाधिक आलोचना की थी।
अतः उत्तर भारत से सहयोग की आशा कम ही है। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रुओं की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति हैं। इसीलिए उनमें भारत नाम की कोई ललक आज तक नहीं जगी। यह संयोग नहीं कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का प्रस्ताव कोंकण-महाराष्ट्र क्षेत्र से आया। जब इसे बंगाल, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से प्रबल समर्थन मिलेगा तभी यहाँ के अंग्रेजी-परस्त भारत नाम स्वीकार करेंगे। अन्यथा उन की सहज प्रवृत्ति इस विषय को पूरी तरह दबाने की रही है। देशभक्तों को इस पर विचार करना चाहिए। लेखक : डॉ. शंकर शरण
अंग्रेजों ने हमें 200 साल तक गुलाम रखा, देश की संपत्ति लूटकर ले गए, देशवासियों के साथ अनगिनत अत्याचार किये फिर भी अभी तक उनका नाम रखें और आज 72 साल हो गए फिर भी नाम नही बदला गया बड़ा आश्चर्य है। सभी अपने देश को अपने नाम से ही पुकारते हैं।
Written By www.azaadbharat.org
0 Comments
Please do not enter any spam link in the comment box