चारु चंद्र की चंचल किरणें,खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई हैं ,अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रगट करती है धरती ,हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हैं तरु भी ,मंद पवन के झोंको से।
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह ,है क्या ही निस्तबंद्व निशा।
है स्वच्छन्द -सुमंद गंध वह ,निरानन्द है कौन दिशा ?
बंद नहीं ,अब भी चलते है ,नियति नटी के कार्य -कलाप।
पर कितने एकांत भाव से,कितने शांत और चुपचाप।

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